छत्तीसगढ़ में स्वामी आत्मानंद शासकीय उत्कृष्ट विद्यालय स्थापित किए जा रहे हैं। अंग्रेजी माध्यम के इन विद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति संविदा के आधार पर होनी है। नियुक्ति के बाद उन्हें एकमुश्त वेतन मिलेगा और भविष्य में किसी प्रकार के स्थायित्व या मानदेय परिवर्तन का लाभ नहीं मिलेगा। आखिर जिसे अपने भविष्य के प्रति आशावान होने से प्रतिबंधित कर दिया जाएगा, वह बच्चों में प्रेरणा और आशा का संचार कैसे करेगा?


वास्तव में हर स्तर पर नियमित और प्रशिक्षित अध्यापक नियुक्त करना राष्ट्र का उत्तरदायित्व है। इसमें की गई कोई भी कोताही राष्ट्र के भविष्य के प्रति अन्याय है। जापान के पुनः उठ कर खड़े हो जाने में जो नीतियां मददगार बनी थीं, उनका अध्ययन यदि भारत ने समय रहते कर लिया होता तो आज हमारी ज्ञान पूंजी विश्व में प्रथम स्थान पर स्वतः पहुंच गई होती, जिस विनाश और अपमान को जापान ने सहा था, वैसा शायद ही किसी अन्य देश ने सहा हो। उस स्तर से उठकर स्वयं को पुनः प्रतिष्ठित कर लेने के पीछे उसकी नीतियों और नेतृत्व का हाथ था। यह भी तभी हो पाया जब वहां के नागरिकों ने इन दोनों पहलुओं को स्वीकार किया और क्रियान्वयन में जी-जान लगा दी।


जापान के इस अद्भुत पुनरुथान के लिए यदि सबसे अधिक श्रेय किसी वर्ग को जाता है तो वह है अध्यापक। शिक्षकों ने ऐसी पीढ़ियां तैयार कर दीं, जिन्होंने अपना सर्वस्व ईमानदारी, कर्मठता और लगनशीलता से देश को सर्वोपरि मानकर उसे समर्पित कर दिया। जापान के नीति-निर्धारकों ने पहले ही तय कर लिया था कि देश को अपने पैरों पर खड़े होने के लिए दीर्घकालीन योजनाएं बनानी होंगी। एक ऐसी पीढ़ी का निर्माण करना होगा, जो भविष्य निर्माण में अपने श्रम और समय के महत्व को समझे।


प्रत्येक नागरिक अपने कार्य-निष्पादन, चरित्र और राष्ट्र भक्ति का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करे। इसके लिए उन्होंने प्राइमरी स्कूलों को लक्षित किया, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर दृष्टिकोण परिवर्तन करने का सबसे सफल मार्ग वही हो सकता है, जो इन स्कूलों में दिन-प्रतिदिन के आचार, विचार एवं व्यवहार में देखा जा सके और जो बच्चों के लिए अनुकरणीय बन सके।


यदि स्कूल जाने वाले छात्र प्रतिदिन यह देखते हैं कि सभी अध्यापक समय से आते हैं, उनका स्नेह उन्हें लगातार मिलता है, अध्यापक ज्ञान एवं कौशल प्रदान करने के नए-नए तरीके अपनाते हैं, हर बच्चे की सभी जरूरतों का ध्यान रखते हैं, सेवा भाव तथा दूसरों की सहायता करने की ओर उन्हें सदा प्रेरित करते रहते हैं तो ये सभी गुण और कौशल स्वतः ही उनके जीवन-व्यवहार में सदा के लिए स्थायी जगह बना लेंगे।


कल्पना कीजिए उस सरकारी स्कूल की, जिसमें निर्धारित संख्या में अध्यापक उपलब्ध हों, कोई कभी भी देर से कक्षा में न आता हो, सभी आपसी सहयोग का भाव रखते हों, हर समय बच्चे की हरसंभव सहायता करने के लिए तत्पर रहते हों और जिनको किसी बड़े अधिकारी का अनावश्यक भय न हो। जापान ने अपने हर स्कूल को ऐसे ही बनाया, क्योंकि उसने ऐसे स्कूलों को भविष्य निर्माण की कुंजी माना और वह सफल भी रहा। हम जापान की प्रगति के बारे में जानकर अभिभूत तो होते हैं, लेकिन उसके तौर-तरीके अपनाने की आवश्यकता नहीं समझते। शायद यही कारण है कि हमारे देश में न जाने कितने विद्यालय ऐसे हैं, जो शिक्षकों की कमी का सामना कर रहे हैं। कुछ विद्यालय तो एक-दो शिक्षकों के भरोसे चल रहे हैं।


निःसंदेह आजादी के बाद से भारत ने शिक्षा के प्रचार-प्रसार में आशातीत उपलब्धियां हासिल की हैं। साक्षरता दर को 18 से 80 प्रतिशत ले आना महत्वपूर्ण है। इसलिए और भी कि इस बीच जनसंख्या सौ करोड़ से ज्यादा हो गई, लेकिन भारत के सरकारी स्कूलों की साख लगातार घटती रही। उनकी स्वीकार्यता केवल उस वर्ग में रह गई, जिसके पास निजी स्कूलों में जाने के लिए आवश्यक संसाधन नहीं। स्कूली शिक्षा को प्राथमिकता देकर ही उच्च शिक्षा तथा शोध एवं नवाचार की गुणवत्ता बढ़ाई जा सकती है, लेकिन इसकी ओर आवश्यक ध्यान नहीं दिया गया।


भारत की विविधताओं से परिचित हर व्यक्ति स्वीकार करेगा कि समेकित और समावेशी विकास केवल निजी स्कूलों में महंगी शिक्षा व्यवस्था और निजी अस्पतालों में वैश्विक स्तर की स्वास्थ्य सेवाओं के आधार पर संभव नहीं है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में अनेक आशाजनक संभावनाएं उभरी हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप में स्थितियां कब सुधारेंगी, यह तो समय ही बताएगा। सामान्य रूप से जो अति आवश्यक सुधार स्कूली शिक्षा में राष्ट्रीय स्तर पर अब तक हो जाने चाहिए थे, उनकी गति अभी भी क्रियान्वयन में विभिन्न स्तरों पर शिथिलता की ओर ही इशारा करती है।


वर्ष 1986 में आई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में केंद्र सरकार ने हर ‘एकल अध्यापक स्कूल’ के लिए अपने बजट से दूसरे अध्यापक की नियुक्ति का प्रविधान किया था। उसके तहत नियुक्तियां हुईं भी, मगर आज भी अनेक सरकारी स्कूल ऐसे हैं, जहां केवल एक अध्यापक है। आखिर 1986 से 2023 की लंबी यात्रा में हम केवल यही प्रगति कर पाए? विश्व में अपनी साख बना रहा भारत यह कैसे न्यायोचित ठहरा सकेगा कि वह आज अपने प्राइमरी छात्रों को पर्याप्त अध्यापक नहीं दे पा रहा है?


 अधिकांश राज्यों में अभी भी छात्र-अध्यापक अनुपात के आंकड़े अत्यंत निराशाजनक हैं, क्योंकि 2009 में देश की संसद द्वारा पारित शिक्षा का अधिकार अधिनियम लगभग भुला दिया गया है। यदि ऐसा न होता तो छात्र-अध्यापक अनुपात 30:1 को लागू कर दिया गया होता। तब शायद यह ‘एकल अध्यापक स्कूल’ जैसी अस्वीकार्य स्थिति पैदा नहीं हुई होती और सरकारी स्कूलों की स्थिति सुधरी होती।


✍️ लेखक : जगमोहन सिंह राजपूत

(एनसीईआरटी के निदेशक रहे लेखक शिक्षा, सामाजिक समरसता और सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं)