व्यवस्था, पुरानी पेंशन, इतिहास और पेंशन की आवश्यकता....!!



         मनुष्य के रूप में हमारा जन्म ईश्वर प्रदत्त नैसर्गिक अधिकारों का प्रमाण है। समस्त जीवों की रक्षा का प्रभार प्रकृति पर आलंबित होता है।प्राणिमात्र की संरक्षा/अभिरक्षा मानव एवं मानवों द्वारा विभिन्न कालखण्डों में स्थापित संस्थानों द्वारा किया जाता रहा है।


सूक्ष्म जीवों से उद्विकास की प्रक्रिया से हम समस्त प्राणि अस्तित्व में आये। मानवों के साथ अन्य जीव जंतु भी प्रदुर्भावित हुए किन्तु एवोलुशन में वे मनुष्यों से पिछड़ गए। मनुष्य उद्विकास में उनसे आगे निकल गया। मानव उद्विकास में सर्वाधिक योगदान मनुष्यों की चेतना ने दिया है।


मानव चेतना का ही परिणाम है कि पृथ्वी के संसाधनों का संधारणीय विकास के साथ मनुष्यों ने भरसक उपभोग किया है। हमारी(मानव की)संस्कृति,सभ्यता,खान-पान,व्यवस्था आदि चेतना की उपज हैं। चेतना की सर्वोत्तम उपलब्धियों में व्यवस्थाएं सर्वश्रेष्ठ हैं। व्यवस्था वही सर्वसिद्ध है जो समाज के अंतिम व्यक्ति को भी नैसर्गिक न्याय की सुविधा उपलब्ध करा सके।


नैसर्गिक न्याय के अंतर्गत ही गरिमामयी जीवन की भी कल्पना की जाती है। उसी गरिमामयी जीवन के अंतर्गत शासन की व्यवस्थाएं भी आती हैं और मनुष्य(सरकारी सेवारत) भी उसी शासन का एक अंग टूटा-फूटा अंग है जिन पर न सरकार की ओर से ध्यान दिया जाता है और न ही समाज की ओर से।


अतीत में भी विश्व की कई सभ्यताओं एवं संस्कृतियों में विशिष्ट सेवा/राज्य सेवा का पारिश्रमिक जीवनपर्यंत दिया जाता था।


भारत में पेंशन का इतिहास अति प्राचीन है। राज्य सेवा में अपना जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति को जमीन का एक भूखंड दे दिया जाता था उससे होने वाली आय से वह अपना जीवन व्यतीत करता था। काल के विभिन्न खंडों में पेंशन विभिन्न रूपों में अस्तित्व में रही है।


भारत में संगठित रूप से पेंशन 1857 ई० में प्रारम्भ किया गया था। विश्व में संगठित रूप से पेंशन प्रारम्भ करने वाला प्रथम देश जर्मनी था।


पेंशन कई प्रकार से वितरित किये जाते हैं,यथा-पारिवारिक पेंशन,सामाजिक पेंशन (वृद्धावस्था पेंशन,विधवा पेंशन,विकलांग पेंशन आदि), किन्तु हम यहाँ चर्चा मात्र रोजगार आधारित पेंशन की ही करेंगे।


भारत समेत विश्व के कई देशों में आज भी सेवानिवृत्त व्यक्तियों को जीवन यापन हेतु वेतन का एक निर्धारित हिस्सा राज्य द्वारा दिया जाता है। यह कई शर्तों पर उपलब्ध कराया जाता है। प्रायः सेवावधि के दौरान एक निश्चित धनराशि सेवाकर्मी के वेतन से कटती रहती है और किसी एक स्थान पर धनराशि एकत्रित हो जाती है। कई बार प्रतिमाह वेतन से किसी प्रकार की कोई धनराशि नहीं काटी जाती है और सेवानिवृत्त होने के उपरान्त वेतन का कुछ हिस्सा पेंशन के रूप में प्राप्त होता रहता है।


कर्मचारियों हेतु भारत में पेंशन-:
भारत में पेंशन लगभग 150 वर्ष से भी पहले प्रारम्भ हुआ था। ब्रिटिश साम्राज्य भारत में अपने शासन को दीर्घकाल तक स्थापित करना चाहता था,उस हेतु सर्वाधिक आवश्यक था भारत 
में ही एक ऐसे वर्ग का निर्माण किया जाए जो लोभ-प्रलोभन में प्रशासन का हिस्सा बनें। 1857 ई० की महाक्रांति के उपरान्त पेंशन प्रारम्भ हो गया किन्तु संगठित रूप से 1871 ई०  के पेंशन अधिनियम द्वारा इसे संचरित किया गया। बैंकिंग उद्योग समेत कई क्षेत्रों में कार्य कर रहे लोगों को पेंशन योजना का लाभ दिया जाने लगा और यह परिपाटी 2004 तक अनवरत जारी रही।


पेंशन का आधार यही था कि ब्रिटिश सरकार द्वारा सेवानिवृत्त कर्मचारियों को जीवन की सुरक्षा हेतु एक आर्थिक सुरक्षा उपलब्ध कराना। यह सम्पूर्ण व्यवस्था 1871 ई० के भारतीय पेंशन अधिनियम द्वारा ही विनियमित थी, तथापि इस संदर्भ में अंतिम निर्णय वायसराय और राज्यपाल ही करते थे, जिसके कारण कर्मचारी/पेंशनभोगी वायसराय और राज्यपालों की दया पर निर्भर थे। मुद्रास्फीति के प्रभाव को बेअसर करने के लिए ब्रिटिश सरकार कभी-कभी पेंशनभोगियों को उनकी पेंशन में वृद्धि के माध्यम से मुआवजा देती थी। भले ही सेवानिवृत्ति लाभ भारत सरकार द्वारा दिए जा रहे थे लेकिन उन्हें मौलिक नियमों में शामिल नहीं किया गया था जिन्हें 1-1-1922 से प्रभावी बनाया गया था।


स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने केंद्रीय सिविल सेवा (पेंशन) नियम, 1972 और सिविल सेवा और सशस्त्र बल कर्मियों के लिए पेंशन को नियमित करने के नियम बनाए गए। 25 मई, 1979 के एक ज्ञापन द्वारा, भारत सरकार ने केंद्रीय सिविल सेवा (पेंशन) नियम,1972 द्वारा शासित कर्मचारियों के संबंध में पेंशन की गणना के फार्मूले को उदार बनाया और इसे 31 मार्च या उसके बाद सेवानिवृत्त होने वाले कर्मचारियों पर लागू किया। 23 सितंबर, 1979 को जारी एक अन्य ज्ञापन द्वारा, इसे कुछ सीमाओं के अधीन, 1 अप्रैल,1979 को या उसके बाद सेवानिवृत्त होने वाले सशस्त्र बलों के कर्मियों तक बढ़ा दिया गया।


श्री. रक्षा मंत्रालय के वित्तीय सलाहकार, डीएस नकारा, रक्षा सेवा (लेखापरीक्षा और लेखा सेवाएं) के एक अधिकारी, जो 1972 में सेवानिवृत्त हुए और अन्य ने उपरोक्त दो ज्ञापनों की वैधता को चुनौती देते हुए संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। जहाँ तक पेंशन की गणना में उदारीकरण केवल उन कर्मचारियों पर लागू किया गया था जो इन ज्ञापनों में निर्दिष्ट तिथियों पर या उसके बाद सेवानिवृत्त हुए थे और उन सभी को उदारीकरण का लाभ देने से इनकार कर दिया गया था जो पहले सेवानिवृत्त हुए थे। इस रिट याचिका की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट के 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने की।


विस्तृत सुनवाई के उपरान्त माननीय सुप्रीम कोर्ट ने उपरोक्त वाद में एक आदेश दिया--

"आक्षेपित ज्ञापन, पीआई और पी-2 का प्रदर्शन, कला का उल्लंघन करता है। 14 और असंवैधानिक हैं और इस विनिर्देश के साथ रद्द कर दिए गए हैं कि उनमें उल्लिखित तारीखें उस तारीख के रूप में प्रासंगिक होंगी जिससे उदारीकृत पेंशन योजना 1972 के नियमों द्वारा शासित सभी पेंशनभोगियों के लिए उनकी सेवानिवृत्ति की तारीख की परवाह किए बिना लागू हो जाती है। असंवैधानिक भाग को छोड़ते हुए, यह घोषित किया गया है कि 1972 के नियमों और सेना पेंशन विनियमों द्वारा शासित सभी पेंशनभोगी, सेवानिवृत्ति की तारीख के बावजूद, निर्दिष्ट तिथि से उदारीकृत पेंशन योजना के तहत गणना के अनुसार पेंशन के हकदार होंगे। नई गणना के अनुसार निर्दिष्ट तिथि से पहले पेंशन का बकाया स्वीकार्य नहीं है। इस आशय का रिट जारी किया जाए, लेकिन मामले की परिस्थितियों में, लागत के संबंध में कोई आदेश नहीं दिया जाएगा।"(उच्चतम न्यायालय के आदेश का अंश)।


यह आदेश अत्यंत महत्वपूर्ण आदेश था,आज भी किसी पेंशन वाद का निस्तारण उक्त निर्णय के आलोक में ही किया जाता है।।



कर्मचारियों हेतु पुरानी पेंशन क्यों आवश्यक है--
               

 विभिन्न निर्णयों, सिद्धांतों एवं सामाजिक परिस्थतियों के आधार पर कुछ विशिष्ट तथ्य भी प्रकट होते हैं जो पुरानी पेंशन को उचित बताते हैं। यथा-

1. पेंशन कर्मचारियों का मौलिक  अधिकार है जो वैधानिक होते हुए कर्मचारियों को आत्मसम्मान के साथ जीवित रहने का अधिकार देता है।

2. सभी कर्मचारी अपनी सेवानिवृत्ति के विषय में सोचे बिना सेवाधि में समर्पित होकर कार्य करते हैं,जिससे सेवा के मूल्यों एवं उसकी उत्पादकता में वृद्धि होती है।

3. पुरानी पेंशन नियोक्ता के विवेक पर मिलने वाली अनुग्रह राशि नहीं है अपितु यह कर्मचारी के वर्षों के सेवा का फल है।

4. पुरानी पेंशन वेतन का कोई अन्य भाग नहीं है बल्कि यह वेतन के एक अंश के रूप में भुगतान होने वाला एक हिस्सा है।

5. पुरानी पेंशन पेंशन अधिनियमों द्वारा विनियमित होता है जिस पर कर्मचारी अपना दावा स्थापित कर सकते हैं।

6. पुरानी पेंशन किसी सरकार के विवेक का फल नहीं है अपितु सेवा से संबद्धित शर्तों का एक अनुगामी हिस्सा है।

7. पुरानी पेंशन के माध्यम से कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति के उपरान्त सामाजिक सुरक्षा दिया जाता है।

8. कर्मचारी को देय पेंशन उनके कुशल सेवा का परिणाम है जो आस्थगित है अर्थात यदि सरकार द्वारा इसे बन्द किया जाता है तो यह संवैधानिक व्यवस्थाओं/प्रावधानों का अतिक्रमण है।

9. पुरानी पेंशन का आच्छादन संविधान के कल्याणकारी राज्य की स्थापना की नीति में सहायक है।



संघ स्तर पर सम्पूर्ण देश में केंद्र सरकार द्वारा पुरानी पेंशन स्कीम को न्यू पेंशन स्कीम से प्रतिस्थापित कर दिया गया है। वर्तमान समय में नवीन पेंशन स्कीम प्रचलन में है। कई राज्यों द्वारा पुरानी पेंशन स्कीम को लागू किया गया है किंतु उसका सम्पूर्ण आर्थिक भार उन्हें अपने राजस्व अथवा केंद्र सरकार द्वारा प्रत्येक राज्यों को दिए जाने वाले आर्थिक अंशदान से सहना पड़ता है। राज्य सरकार इस हेतु व्यय को समंजित करने के लिए आय के मद निर्धारित करने पड़ते हैं।


पुरानी पेंशन सुविधा और नवीन पेंशन सुविधा में एक तुलनात्मक अध्ययन--

1.पुरानी पेंशन योजना कर्मचारियों को उनके अंतिम वेतन के आधार पर पेंशन निर्धारित करती है जबकि न्यू पेंशन स्कीम कर्मचारियों को उनके रोजगार के ही समय निवेश हेतु एक निश्चित धनराशि भुगतान करती है।

2.पुरानी पेंशन योजना में अंतिम वेतन का 50% अनिवार्य रूप से प्राप्त होता है जबकि न्यू पेंशन स्कीम में कुल एकत्रित धनराशि का 60% धनराशि अवमुक्त होता है, 40% धनराशि विभिन्न क्षेत्रों में निवेश किया जाता है और उससे प्राप्त होने वाला लाभ का एक निश्चित हिस्सा कर्मचारियों को दिया जाता है।

3.पुरानी पेंशन योजना कर्मचारियों के अंतिम वेतन का 50% उपलब्ध कराने की गारंटी देती है जबकि न्यू पेंशन योजना किसी प्रकार की कोई गारंटी नहीं उपलब्ध कराती है।

4. पुरानी पेंशन स्कीम में आय पर किसी का कोई कर देय नहीं है जबकि न्यू पेंशन योजना में एनपीएस कॉर्पस का 60% हिस्सा कर मुक्त है किंतु 40% हिस्से पर कर देय है।

5.पुरानी पेंशन स्कीम सरकारी कर्मचारियों हेतु है किंतु न्यू पेंशन योजना का लाभ 18-65 वर्ष आयु का कोई भी ले सकता है।

6. ओ पी एस को एन पी एस में बदला जा सकता है (प्रायः ऐसा कोई नहीं करता है) किंतु एनपीएस को ओपीएस में नहीं बदला जा सकता है।


ओ.पी.एस बन्द करने का सरकारी तर्क:-

सरकार कहती है इससे राजकोष पर अधिक वित्तीय प्रभार पड़ता है जबकि वास्तव में देश के कुल आय का महज़ बहुत ही कम हिस्सा इसमें आवंटित होता है।


पुरानी पेंशन योजना हेतु अब तक के प्रयास:-

 
          2004 में संघ सरकार द्वारा जब पुरानी पेंशन को स्थगित किया गया था तो उस समय नवीन पेंशन स्कीम का विरोध करने वाले कर्मचारी बहुत ही कम थे किंतु शनैः शनैः जब पुरानी पेंशन योजना से अनाच्छादित कर्मचारियों की संख्या बढ़ने लगी तो विरोध के स्वर उठने लगे किन्तु अभी भी आंदोलन न तो सफल हो पाये हैं और न ही पुरानी पेंशन योजना पूर्णरूपेण लागू हो पाई है।



पुरानी पेंशन योजना आंदोलन के विफलता के कारण-


1. कर्मचारियों का पूर्णमनोयोग से कार्य(माँग) न कर पाना।

2. अनेकानेक संगठनों के अस्तित्व के कारण परस्पर संघर्ष का होना।

3. सरकारी कर्मचारियों की संख्या का कम होना।

4. विभिन्न सरकारों का प्रतिकारक रवैया।

5. कर्मचारी आचरण नियमावली के प्रतिबन्ध।

6. पेंशन की माँग करने वाले विभिन्न विभागों का एक मंच पर न आ पाना।

7. सामाजिक पूर्वाग्रहों का सुदृढ़ होना। समाज की दृष्टि की में कर्मचारी अधिक वेतन सेवा के रूप में प्राप्त करते हैं इस स्थिति में उन्हें पेंशन की आवश्यकता नहीं है।


सरकार का दायित्व- सरकार को एन पी एस जैसी व्यवस्था को स्थगित कर उसके स्थान पर पुरानी पेंशन व्यवस्था को पुनः लागू करना चाहिए। पुरानी पेंशन मात्र सरकारी कर्मचारियों को दिया जाए क्योंकि वे समाज के कल्याणकारी राज्य की स्थापना में सहायक होते हैं। समाज के प्रत्येक वंचित वर्ग को राज्य के योजनाओं के साथ योजित करने का कार्य यही करते हैं। इन्हें न्यूनतम निवेश उच्चतम लाभ की की अपेक्षा नहीं होती है। समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को साथ लेकर चलने का दायित्व इनके द्वारा निभाया जाता है। वहीं निजी विद्यालय, चिकित्सालय समेत अन्य निजी संस्थाओं की क्या स्थिति है किसी से छिपी नहीं है।


✍️  लेखक- 'राजा' दिग्विजय सिंह
       सहायक अध्यापक
       जनपद-गोंडा

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