सबसे जरूरी है शिक्षकों की गरिमा स्थापित होना लेकिन शिक्षा को भगवान भरोसे छोड़ बाकी चीजों में हो रहा निवेश


पहले एक गुरु मानसिक और व्यावहारिक रूप से दूसरों की भलाई करने वाले और भविष्य का नजरिया रखने वाले इंसान के रूप में प्रतिष्ठित था। वह माता-पिता से कम महत्व का न था। वह विद्यार्थी का प्रेरणास्रोत और ऐसा हितैषी था जो उसे सत्पथ पर जाने की राह दिखाता था। उनमें चरित्र निर्माण करते हुए एक अच्छा मनुष्य और देश का अच्छा नागरिक बनाना उसका कर्तव्य था।


शिक्षा नीति-2020 के महत्वाकांक्षी स्वप्न को आकार देने के लिए अध्यापकों की स्थायी व्यवस्था जरूरी है। मानव सभ्यता के संदर्भ में अध्यापन कार्य न केवल दूसरे व्यवसायों की तुलना में सदैव विशेष महत्व का रहा है, बल्कि अन्य सभी व्यवसायों का आधार भी रहा है। आज सामाजिक परिवर्तन विशेषतः तकनीक की तीव्र उपस्थिति शिक्षक और शिक्षार्थी के रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित कर रही है। साथ ही कक्षा, समाज और व्यापक विश्व के संदर्भ में शिक्षक की संस्था भी नए ढंग से जानी-पहचानी जा रही है। इसके फलस्वरूप शिक्षक की औपचारिक भूमिका और व्याप्ति का क्षेत्र अतीत की तुलना में वर्तमान में नए-नए आयाम प्राप्त कर रहा है। इन सबके बीच अभी भी अध्यापक अपने गुणों, कार्यों और व्यवहार से छात्रों को प्रभावित कर रहा है और उसी के आधार पर भविष्य के समाज एवं देश के भाग्य को भी रच रहा है।


एक अध्यापक को समाज ने अधिकार दिया है कि वह अपने छात्र के जीवन में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हस्तक्षेप करे, विद्यार्थियों को भविष्य के सपने दिखाए और उनमें निहित क्षमता को समृद्ध कर उन सपनों को साकार करने के लिए तैयार करे। ऐसा करते हुए वह मूल्यों और मनोवृत्तियों को भी गढ़ता है। वशिष्ठ, चाणक्य, रवींद्रनाथ टैगोर, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, सर्वपल्ली राधाकृष्णन आदि के स्मरण से मन में गुरु की आदर्श और तेजस्वी छवि बनती है। ज्ञात हो कि राधाकृष्णन की जन्मतिथि पर ही शिक्षक दिवस मनाया जाता है।


शिक्षा के परिसर में अध्यापक के व्यवहार के जो नैतिक और आचारगत परिणाम होते हैं, वे समाज की नैतिक परिपक्वता और विवेक को निश्चित करते हैं। इसीलिए अध्यापक को जांचने-परखने के लिए ऊंची कसौटी और मानक तय किए जाते हैं, जिन्हें दूसरे व्यवसाय के लोग आसानी से नहीं स्वीकारते। अध्यापकों से नैतिक गुणों की अपेक्षा होती है। उनसे आशा की जाती है कि वे अपने आचरण में उचित और अनुचित का विवेक करेंगे। योग्यता, कुशलता और गुणवत्ता उनके व्यवहार से झलकेगी। वे प्रतिबद्धता, काम के प्रति समर्पण, सत्यनिष्ठा, ईमानदारी और पूर्वाग्रहमुक्त आचरण की मिसाल प्रस्तुत करेंगे। शिक्षक की गुणवत्ता विद्यार्थी की सफलता का सबसे प्रमुख आधार होता है। ऐसा सोच कर अभिभावक अपने मन में अध्यापक और गुरु के प्रति सहज सम्मान का भाव रखता रहा है।


पहले एक गुरु मानसिक और व्यावहारिक रूप से दूसरों की भलाई करने वाले और भविष्य का नजरिया रखने वाले इंसान के रूप में प्रतिष्ठित था। वह माता-पिता से कम महत्व का न था। वह विद्यार्थी का प्रेरणास्रोत और ऐसा हितैषी था, जो उसे सत्पथ पर जाने की राह दिखाता था। उनमें चरित्र निर्माण करते हुए एक अच्छा मनुष्य और देश का अच्छा नागरिक बनाना उसका कर्तव्य था।


समाज में गुरु की ऊंची साख इसलिए भी थी कि वह निर्भय होकर बिना किसी लाग-लपेट लोकहित की बात कह सकता था, पर अब यह छवि बदल रही है। थोड़े अध्यापक ही अपनी मूल छवि की रक्षा कर पा रहे हैं। आज 21वीं सदी में पहुंच कर न केवल ज्ञान की विषयवस्तु में बदलाव आया है, बल्कि पठन-पाठन के तौर-तरीके भी बदले हैं। अनुदानप्राप्त शिक्षा केंद्रों में वेतन तो बढ़ा है, परंतु आम तौर पर शिक्षण कार्य के साथ लगाव और रुचि में कमी आई है। तल्लीन होकर कार्य करना और उसे गंभीरता से लेना अध्यापकों की प्राथमिकता में नीचे खिसक रहा है। शिक्षक की नैतिक क्षमता और योग्यता अब दुर्लभ हो रही है।


अध्यापकों के विद्यार्थियों के साथ बर्ताव को लेकर गलत आचरण की शंका बढ़ रही है और भरोसा कम हो रहा है। यह खेदजनक है कि विगत वर्षों में अनेक संस्थानों में छात्रों को प्रताड़ित करने के मामलों में वृद्धि हुई है। इंटरनेट मीडिया के अनियंत्रित दखल ने स्वस्थ और सुरक्षित शैक्षिक परिवेश की राह में बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। ऐसे में नैतिकता और शिक्षा प्रक्रिया के संबंध को न्याय और ईमानदारी की भावना से स्थापित करना आवश्यक हो गया है। सामाजिक मूल्यों और मानकों का पालन, गुणवत्तापूर्ण सीखने-सिखाने की प्रक्रिया, छात्रों की आवश्यकताओं को जानकर ईमानदार और न्यायपूर्ण समाधान आज की सबसे बड़ी चुनौती हो गई है।


आज के संदर्भ में अध्यापन, मूल्यांकन और अभिव्यक्ति आदि शिक्षा के विभिन्न पक्षों में तकनीकी का समुचित उपयोग करने की प्रभावी नीति की भी आवश्यकता है। प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक का शिक्षा-संदर्भ निजी, सरकारी और अर्धसरकारी संस्थाओं की श्रेणियों में बंटा हुआ है और इनमें भी भयानक स्तर पर भेद है। इनके कायदे-कानून, अध्यापकों को मिलने वाले अवसर, कार्यभार और वेतन आदि में बड़े भेद और विसंगतियां हैं। केंद्रीय महत्व का होने पर भी बहुत कम संस्थाओं में अध्यापक का स्वायत्त अस्तित्व होता है। आज अधिकांश शिक्षा संस्थाएं तदर्थ अध्यापकों के भरोसे चल रही हैं और खोखली हो रही हैं।


शिक्षा नीति-2020 के महत्वाकांक्षी स्वप्न को आकार देने के लिए अध्यापकों की स्थायी व्यवस्था जरूरी है। पूरी शिक्षा व्यवस्था जिस तरह व्यावसायीकरण की चपेट में है, उसका एक परिणाम कोचिंग नगरी कोटा की कथा से उजागर होता है, जहां विद्यार्थियों में आत्महत्या की प्रवृत्ति फैल रही है। वस्तुतः शिक्षा अभी तक हमारी राष्ट्रीय विकास योजना के एजेंडे में बहुत नीचे है। शिक्षा को भगवान भरोसे छोड़ बाकी चीजों में निवेश हो रहा है। इस उदासीनता के दुष्परिणाम भी दिख रहे हैं, पर राजनीति की समाधि नहीं टूट रही है। ‘सा विद्या या विमुक्तये’ कहते हुए भी शिक्षा कारोबार बनती जा रही है। बाजार और व्यवसाय के ताने-बाने में शिक्षक इस कारोबार का एक अदना किरदार हो गया है। शिक्षक की गरिमा स्थापित करके ही अमृतकाल के संकल्प चरितार्थ हो सकेंगे।



✍️ लेखक
गिरीश्वर मिश्र
(लेखक शिक्षाविद एवं पूर्व कुलपति हैं)

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