क्यों पनप रहा ट्यूशन-कोचिंग उद्योग? शिक्षा-परीक्षा तंत्र में खामियां इनके लिए तैयार कर रहीं उपजाऊ जमीन


वर्ष 2005 में एनसीईआरटी ने पाठ्यक्रम की जो रूपरेखा बनाई उसके संचालन समूह की अध्यक्षता भी प्रो. यशपाल ने ही की थी। तब पुस्तकों की संरचना विषयवस्तु और पढ़ाने के ढंग तथा परीक्षा पद्धति में कई परिवर्तन किए गए। वहीं समय के साथ विभिन्न परीक्षाओं मे प्रतिभागियों की संख्या बढ़ती गई और प्रतिस्पर्धा का तनाव भी तेजी से बढ़ा। सरकारी स्कूलों की स्थिति बद से बदतर होती गई।


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यह 1991 की बात है। सुप्रसिद्ध लेखक आरके नारायण ने राज्यसभा में शिक्षा पर केंद्रित ऐतिहासिक भाषण दिया। भाषण का विषय छात्रों पर बस्ते का बोझ कम करना था। उसमें विस्तारित पाठ्यक्रम के चलते छात्रों पर पड़ने वाले अनावश्यक तनाव की विवेचना थी। उस वक्तव्य पर देशव्यापी चर्चा हुई। भारत सरकार ने प्रसिद्ध विज्ञानी एवं शिक्षाविद् प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में स्कूली बैग के बोझ को घटाने के लिए एक समिति गठित की जिसने 1993 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। उसमें सबसे महत्वपूर्ण संस्तुति यही थी कि बस्ते के बोझ से भी ज्यादा तनाव जो कुछ पढ़ाया जाता था, उसे समझ न पाने के कारण उत्पन्न होता है। समिति ने उसके कारण भी गिनाए थे।


वर्ष 2005 में एनसीईआरटी ने पाठ्यक्रम की जो रूपरेखा बनाई उसके संचालन समूह की अध्यक्षता भी प्रो. यशपाल ने ही की थी। तब पुस्तकों की संरचना, विषयवस्तु और पढ़ाने के ढंग तथा परीक्षा पद्धति में कई परिवर्तन किए गए। वहीं, समय के साथ विभिन्न परीक्षाओं मे प्रतिभागियों की संख्या बढ़ती गई और प्रतिस्पर्धा का तनाव भी तेजी से बढ़ा। सरकारी स्कूलों की स्थिति बद से बदतर होती गई। नियमित अध्यापकों की नियुक्तियां कई राज्यों ने बंद कर दीं और नाममात्र के मानदेय पर अनेक पदनामों से अनियमित पढ़ाने वालों को नियुक्त किया। इससे ट्यूशन और कोचिंग के लिए अत्यंत उपजाऊ भूमि तैयार होती गई।


राजस्थान के शहर कोटा में तो कोचिंग ने एक राष्ट्रीय स्वरूप वाला औपचारिक आकार ले लिया है। प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की कोचिंग में कोटा की महारत की चर्चा गांव-कस्बों तक पहुंच गई। देश भर के अभिभावकों ने अपने बच्चों को वहां भेजने का प्रबंध करना शुरू कर दिया। इंजीनियरिग एवं मेडिकल में प्रवेश के लिए कोटा में कुछ साल बिताना ‘हर समस्या का समाधान’ मान लिया गया। कोटा में कोचिंग परिदृश्य उभरने के साथ ही वहां लोगों को लाभ कमाने के अपार अवसर दिखे।


जब भी किसी शहर की आर्थिक उन्नति होती है तो वहां कुछ प्रभावशाली लोग नेताओं से अपने संबंधों का लाभ उठाकर नियमों को ताक पर रखते हुए अपने हित साधने में लग जाते हैं। इस सिलसिले में कोटा भी अपवाद नहीं रहा। यहां कुछ कोचिंग संस्थानों ने स्कूलों से साठगांठ कर ली। मतलब उपस्थिति स्कूल में और पढ़ाई केवल कोचिंग केंद्र पर। यह सबकी जानकारी में है। केवल नियामक संस्थाएं ही बेखबर दिखती हैं। प्रत्येक कोचिंग संस्थान का उद्देश्य स्पष्ट है कि उसके यहां अधिक से अधिक बच्चे प्रवेश लें, ताकि वह यह दावा कर सके कि सबसे अधिक सफलता की दर उसी की है। ऐसे में आंतरिक परीक्षाओं में जो बच्चे अच्छे अंक लाएंगे तो कोचिंग संस्थान का पूरा ध्यान उन्हीं पर केंद्रित हो जाएगा। जो पीछे रह जाएंगे, उनका मनोबल गिरता जाएगा और उसी अनुपात में उनका तनाव बढ़ता जाएगा।


हर बच्चा जब कोटा या इसी तरह के अन्य उन शहरों में जाता हैं, जहां कोचिंग ने एक उद्योग का रूप ले लिया है, तब उसके दिमाग में यह स्पष्ट रहता है कि यदि वह सफल नहीं हुआ तो माता-पिता की आर्थिक-सामाजिक दशा पर इसका सीधा असर पड़ेगा। 2023-24 में कोटा में करीब 2.05 लाख विद्यार्थी आए और उनके लिए शहर में तीन हजार छात्रावास और 25,000 कमरे प्रतीक्षारत थे। राष्ट्रीय स्तर पर 2022-23 मे 27.4 लाख बच्चे आइआइटी और मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं में बैठे। इनके लिए केवल 64,610 स्थान थे। कोटा आए प्रतिभागियों की सफलता के आधिकारिक आंकड़े तो उपलब्ध नहीं, लेकिन सामान्यतः माना जाता है कि सफलता की दर 10 से 14 के बीच होती है। वहां कोचिंग संस्थानों में जिस प्रकार की पढ़ाई कराई जाती है, उससे किसी भी तरुण के जीवन में तनाव ही पसरेगा। बच्चों पर वहां के अत्यंत तनावपूर्ण परिवेश का गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।


कोटा में इस वर्ष अभी तक 25 बच्चे आत्महत्या कर चुके हैं और ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। कोटा की समस्या का त्वरित समाधान निकालने के लिए राजस्थान सरकार ने एक समिति गठित की है। ऐसी समितियों और उनकी रिपोर्ट से कोई बहुत अपेक्षाएं नहीं रहतीं। कोटा के मामले में त्वरित सुधार की आवश्यक है। कोटा की समस्या का निराकरण दीर्घकालीन समाधान तलाशकर ही संभव है। सबसे पहली चुनौती है कि सरकारी प्राइमरी स्कूलों की साख और स्वीकार्यता को स्थापित करना। यदि यह मनोयोग से किया गया होता तो सरकारी स्कूलों की स्थिति इतनी दयनीय नहीं होती और देश में ट्यूशन और कोचिंग इस हद तक नहीं पनपे होते। प्रवेश परीक्षाओं में केवल मस्तिष्क की प्रखरता पर ध्यान दिया जाता है और भावनात्मक एवं अन्य पक्षों को भुला दिया जाता है। यह ठीक नहीं।


गांधीजी ने भारत के लिए उपयुक्त शिक्षा व्यवस्था पर जितना चिंतन और प्रयोग किए, उतने शायद ही किसी ने किए हों। उन्होंने शिक्षा की जो टेक्सोनामी (वर्गीकरण) विकसित की थी, उसके तीन अंग थे-मस्तिष्क, हाथ और हृदय। इन तीनों को विकसित करना था। भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उसने हाथ और हृदय को पीछे छोड़ दिया है। इंजीनियरिंग-मेडिकल प्रवेश परीक्षा में प्रायोगिक यानी प्रेक्टिकल दक्षता की कसौटी क्यों नहीं होनी चाहिए? यह किसी से छिपा नहीं रहा कि कई शिक्षा बोर्ड में 10वीं और 12वीं में होने वाली प्रेक्टिकल परीक्षाएं हास्यास्पद स्थिति में पहुंच गई हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं में प्रेक्टिकल का समावेश बाजी पलटने वाला सिद्ध हो सकता है। वास्तव में कोटा का समाधान कोटा में नहीं निकलेगा, उसे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित कर उपाय ढूंढ़ना होगा।




✍️  जगमोहन सिंह राजपूत

(एनसीईआरटी के निदेशक रहे लेखक शिक्षा, सामाजिक समरसता और पंथक सद्भावना के क्षेत्र में कार्यरत हैं)

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